Monday, June 13, 2011

लफ्ज़

क्यों खामोश है हर लम्हा
की तन्हाईयाँ घेरे है
क्या बिछड़ा है यार मेरा मुझसे
या ये वक़्त की जरुरत है
क्यों हँसते हुए चेहरे पे
आज ये चुपियों का डेरा है
क्या लफ्ज़ नहीं है बोलने को
या होठों पे तेरी बेरुखी का पहरा है
मालूम न थी तेरा मुझसे जुदा होने की वजह
की मेरे लिए तो तू ही मेरा बसेरा था
उजड़ गया आशियाना की होश ही न था
जब तूने कहा की मेरा तुझसे नाता ही क्या था
खोजता हूँ वक़्त की गहराईयों में
जवाब अपने सवालों के
की क्यों नहीं जान पाया वो
मेरी चाहत के पैमानों को
मेरे लिए तो वो ही मेरी दुनिया ,
मेरी जीने की वजह और
मेरी हर रात का सवेरा था
पर जब वक़्त आया साथ निभाने का तो पता चला
मै उसका बहुत कुछ तो था पर सब कुछ नहीं था|

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झूट

तेरे हर झूट पे यकीन करने का मन करता है  पर क्या करें तेरा हर सच बहुत कड़वा होता है